महर्षि चरक बोले, ‘शिष्यों, नैतिक जीवन तथा राजाज्ञा में कोई साम्य नहीं है। यदि राजा अपनी प्रजा की संपत्ति अपनी इच्छा से कार्य कर केवल अपने के लिए व्यय कर रहा हो तो, वहां नैतिक आदर्श का पालन कैसे होगा।’
नैतिकता उन शुरुआती सरोकारों में शामिल है, जो मनुष्य को ऐसे संदर्भों और कथाओं तक ले गया जिनसे इसकी सीख मिलती हो। ऐसी ही एक मान्यता और बहुश्रुत कथा के अनुसार आयुर्वेद के प्रणेता महर्षि चरक औषधीय जड़ी-बूटियों की खोज में अपने शिष्यों के साथ जंगल एवं खाई-चोटियों में घूम रहे थे।
काफी देर तक चलते रहने के बाद अचानक उनकी नजर एक हरेभरे खेत में खिले हुए एक सुंदर फूल पर गई। इससे पूर्व ऐसा अनुपम पुष्प उन्होंने कभी नहीं देखा था। उन्हें वह पुष्प तोड़ने की इच्छा हुई। परंतु नैतिक आदर्शों के प्रति दृढ़ होने के कारण उन्हें ऐसा करना सही नहीं लगा। अलबत्ता उस फूल को न हासिल करने के कारण उनका मन थोड़ा विचलित होने लगा था। एक शिष्य ने उनकी यह दशा ताड़ ली। शिष्य ने विनम्रता से उनसे पूछा, ‘गुरुवर! यदि आपकी आज्ञा हो तो वह फूल मैं तोड़ लाऊं और उसे आपकी सेवा में अर्पित करूं?’
महर्षि चरक ने कहा, ‘वत्स ! निश्चित रूप से मुझे उस फूल की आवश्यकता रहेगी। परंतु खेत के मालिक की आज्ञा के बिना फूल तोड़ना चोरी होगी।’ महर्षि के उच्च आदर्श और नैतिक सीख के आगे शिष्य ने सिर झुका लिया। महर्षि चरक को लगा कि उन्हें नैतिकता को लेकर अपने शिष्यों से और बातें करनी चाहिए ताकि उनके मन में कोई दुविधा न रहे।
वे आगे बोले, ‘शिष्यों, नैतिक जीवन तथा राजाज्ञा में कोई साम्य नहीं है। यदि राजा अपनी प्रजा की संपत्ति अपनी इच्छा से कार्य कर केवल अपने के लिए व्यय कर रहा हो तो, वहां नैतिक आदर्श का पालन कैसे होगा।’ शिष्यों के लिए यह बड़ी सीख थी। बाद में महर्षि अपने शिष्यों के साथ वहां से करीब तीन मील पैदल चलकर उस खेत के मालिक के घर गए एवं उसकी इजाजत से ही उन्होंने वह फूल तोड़ा। अपने आचार्य के इस आचरण का उनके शिष्यों पर गहरा असर पड़ा।